Tuesday, January 25, 2011

वरुण यह मधुमय देश हमारा (आलेख) [डॉ.कुमार विश्वास ]


महीने भर अपुन तो भाई लोगों की चुनाव-चकल्लस में चित्त लगाए रहे। आ पड़ी महानता के नीचे अचकचाए राहुल बाबा, हाशिए पर पड़े-पड़े पैदा हुई कुंठा से फ़नफ़नाए हुए जहरीले हुए वरूण गांधी, मतगणना–पूर्व तक अपने आगत के विषय में मीडिया के अधकचरे सोच से उपजी आश्वस्तिकारक बहसों से आत्म-मुग्ध नरेन्द्र मोदी, मतदाताओं के अचानक बेहद समझदार होने की अप्रत्याशित सूचना से शोचनीय अवस्था में पहुंचे लालू- पासवान, बरसों के संघर्ष से पैदा हुई स्वाभिमानी चमक से लबरेज लाल-सलाम को अंतिम प्रणाम की मुद्रा में पहुंचाती ममता, हीरों और अहंकार से लदी दलितों की दौलतमंद हवाई महारानी, समकालीन राजनीति के निर्लज्जतम पड़ाव पर ठिठकी नवाबी शहर रामपुर में लिखी जा रही शोले-2 की वीभत्स पटकथा। क्या नहीं था भाई? सारे चैनल एक तरफ़, ये सारे खल एक तरफ़। सौ हिन्दी फ़िल्मों के चमत्कारों में भी वो परम मनोरजन नहीं मिलेगा जो इन एक-दो महींनों में इन जोकरों ने पूरी तन्मयता से मंचित किया। ये किसी सस्ते चकलाघर पर हफ़्ता ना पहुंचने से बौखलाई पुलिस के आधी रात के छापे जैसा आदिम नंगई से लिथड़ा कोलाहल था, जिसमें अंदर की भगदड़ जब मतदान और परिणाम की लोकतांत्रिक रोशनी में पहुंची तो ठिठकने की बजाए और बदकलाम व बेहया हो गई। 

रचनाकार परिचय:-

डॉ॰ कुमार विश्वास का नाम किसी भी हिन्दी काव्य-रसिक के लिये अपरिचित नहीं है। देश के सर्वाधिक लोकप्रिय कवियों में गिने जाने वाले डॉ॰ कुमार विश्वास के अब तक दो काव्य-संग्रह प्रकाशित हुये हैं जिन्हें पाठकों का अपार स्नेह मिला है। ये अपने काव्य-वाचन के अंदाज़ के लिये सभी के चहेते हैं।

पर हमारा प्रणाम उन भारतीय मतदाताओं को, जो बड़े बिजूका-भाव से इन चिड़ीमारों की चैं-चैं देखते रहे, और बटन भर में इन्हें इनकी औक़ात दिखा दी। परिणाम से पहले मुझे अनेक मिले जो वरूण- नक्षत्र की गरमीं में पल-पल पिघलने जा रही भारतीय राजनीति की नई प्रतिमा के दिवा-स्वप्न देख रहे थे और हम से भी आंख फोड़ कर ऐसी ही कल्पना में खोने का धुआंधार तर्कपूर्ण आग्रह कर रहे थे। डर हम भी रहे थे कि कहीं किसी दिन इन्हीं का सत्य हमें अपने सत्य से एकाकार न करना पड़ जाए। फिर खुद को भरोसे में लिया, और सोचा कि ‘चांडाल की फूंक से अगर औलाद बचती हो, तो ऐसी औलाद मरी भली’। एक सामान्य सी बात भाई लोगों को क्यों समझ में नहीं आती कि इस उप-महाद्वीप में किसी भी प्रकार का अतिवाद गूलर की कपास और दीवार की घास जैसा ही है- ना चरने की, ना भरने की। तभी तो इस चुनाव में मतदाताओं ने बंगाल से गुजरात तक राम वाले और हराम वाले- दोनों को ही नागा सम्प्रदाय में पहुंचा दिया। कुछ को तो यह भाष्य अभी तक समझ में नहीं आ रहा कि ऐसा कैसे हो गया कि रामस्वरूप बीमार हुए और फ़लस्वरूप मर गए। यही तो इस देश का चमत्कार है भईये। राजस्थान की घाघरा- लूंगड़ी वाली अकेली बालिका वधू एकता कपूर की मेट्रो बहुओं और कालजयी सासों के खटोले दलान में बिछा देने के लिए काफ़ी है। कांग्रेसियों की हालत तो परिणाम के समय बारात में न्यौछावर के सिक्के लूटते बच्चों जैसी हो गई। इतनी इफ़रात की उम्मीद तो चाची के किसी चमचे को नहीं थी। गज़ब का भाग्य ले कर उतरी हैं जम्बू-द्वीप की महारानी। उनके दस-नम्बरी नील पद्म-प्रासाद में बैठे बैठे ही क्षेत्र के क्षेत्र विजित हो जाते हैं। उनके क्षत्रप अपने घाव तक नहीं दिखा पाते कि उधर बाहर वाले जनपथ पर उनका महा-मस्तकाभिषेक शुरू हो जाता है। एक घर की गिरह में पड़े इस अद्भुत देश को देख कर सोचती तो वो भी होंगी, कि कहां आ फंसी? इतनी मनुहार और इतनी चक्रवर्ती चापलूसी से बेचारी चौंक- चौंक जाती हैं। और युवराज- उन पर तो पूरी भारत माता हमारी सारी मौसियों सहित बलिहारी है। अमेठी की एक जनसभा में युवराज ने वहां से अपने लगाव का एक किस्सा सुनाया, कि कैसे उनके बचपन में (शारीरिक) एक जले हुए गांव की एक जली हुई झोंपड़ी में बैठी एक जली-भुनी बुढिया ने उन्हें पास बुलाकर चाकलेट खाने को दी थी। मैं तो कवि आदमी ठहरा (‘आदमी’ सुविधानुसार हटा सकते हैं)। इस किस्से का भावार्थ समझ गया कि बाबा उन दिनों पापा के साथ दौरे पर गए थे, और उन्हीं दिनों जले-कुटे हिन्दुस्तान की जली-भुनी अवस्था में भारत माता ग्रामवासिनी ने उन्हें खानदानी चाकलेट के अहर्निश सेवन का आशीर्वाद प्रदान कर दिया था। ठीक ही है जी- मुगलों के समय से ही हम ‘जगदीश्वरोवा- दिल्लीश्वरोवा’ भजने के आदी हैं। तो बाप भी सही थे, और आप भी सही हैं। दरअसल भारतीय राजनीति का यह दिखावटी युवा-उत्कर्ष उतना ही फ़र्जी है जितना भारतीय राजनीति का पत्नियों, प्रेमिकाओं, विधवाओं, रक्षिताओं और वारांगनाओं की बहुलता से भरा नारी-प्रतिनिधित्व। अब स्वर्गीय राजीव गांधी, स्वर्गीय माधव राव सिंधिया, स्वर्गीय राजेश पायलट, स्वर्गीय जितेन प्रसाद, स्वर्गीय सुनील दत्त और प्रभावी रूप से जीवित मुलायम सिंह, वसुंधरा राजे, शरद पवार, नारायण राणे, मुरली देवड़ा, फ़ारूख अब्दुल्ला के कारण अगर राहुल गांधी, ज्योतिरादिय सिंधिया, सचिन पायलट, जतिन प्रसाद, प्रिया दत्त, अखिलेश यादव, दुष्यंत कुमार, सुप्रिया सूले, नीलेश राणे, मिलिंद देवरा और उमर अब्दुल्ला को हम भारतीय युवा राजनीति का वास्तविक हक़दार बना रहे हैं, तो भारतीय क्रिकेट टीम की कप्तानी भी हमें रोहन गावस्कर को सौंप देनी चाहिए। 

हमारा इस बात पर कोई दुराग्रह नहीं कि राजनीति आपका वंशानुगत कर्म है तो आप क्यूं ना करें। जरूर करें। बल्कि जोर-शोर से करें। लेकिन किसी भी बड़ी परीक्षा में ज़रूरी एक न्यूनतम अहर्ता तो प्राप्त कर लें। फिर ज़रा तपें, मंजें, जूझें, गिरें, निकलें, निखरें और तब वहां बैठने की सोचें जहां लाल बहादुर जैसे मर्द और अटल जी जैसे सहज पहुंचे थे। पर आपको तो जुम्मा-जुम्मा चार दिनों में ही सारे दिग्विजयी जनार्दन चुम्मा-चुम्मा करने लगते हैं। उम्मीद है कि नए कांग्रेसी युवराज की मां उन्हें ‘एन्टी- साईकोफैन्सी’ का टीका लगवाएंगी। ताकि नवजात इन बांझ- बुढियाओं की अतिशय बलईयां-धर्मी बीमारियों से बचा रहे।

पर मजा आ रहा है। रथ वाले इस सब का अरथ पूछ रहे हैं। भगवा-कुल का चिंतन शिविर लगने वाला है। फिर फ़ालतू खोपड़ी खुजा-खुजा कर बखत और बाईट दोनो खराब करेंगे। हारे क्यूं? अरे! इसके लिए इतना हल्कान काहे होना? सब फ़र्जी कारण भी फ़र्जी ही बताएंगे। हारे क्यूं का सीधा- सपाट कारण है- हारे इसलिए भैया कि लोगों ने तुम्हें वोट नहीं दिये, और वो इसलिए जीत गए, कि उन्हें लोगों ने वोट दिये। अब पूछो, कि जीतोगे कैसे? तो भईये, जब बाहरी वोट, आंतरिक खोट और परम लक्ष्य नोट, तीनों से मुक्त हो कर वहीं लौटोगे जहां से चले थे, तो तुम बिना मतदान के ही जीत जाओगे। इसका मतलब ये नहीं कि जो जीते वो इन तीनों बातों से परे है। पर वे जो भी हैं, अपने स्वधर्म पर अडिग है। बरसों से वो स्वार्थी, अवसरवादी, भ्रष्टाचारी, चापलूसों का गुट न होकर गैंग है। संयोग से मुखिया उन्हें वाल्मीकि मिल गया है। तो रामायण मजे से बंच रही है। पर तुम तो निकलते कश्मीर बचाने हो, और पहुंच कंधार जाते हो। राम की खोज में सरयू में गोता लगाते हो और लखनऊ के तट पर कांशीराम लेकर प्रकट होते हो। सार्वजनिक शुचिता और नैतिकता की भागवत बांचते हो, और तुम्हारे कथा-व्यास ही टी वी के कैमरों में चढावे की उल्टी करते पाए जाते हैं। राष्ट्रीय राजमार्गों पर बड़े बड़े होर्डिंग्स में तुम्हारे ज़मीनी नेता आसमान की ओर उंगली उठाए दिखते हैं, और देश नीचे से निकल जाता है। शहीद जवानों के ताबूतों से दलाली खाने वाले तुम्हारे संगी- साथियों के लिए तो ‘कफ़न-खसोटे’ वाली गाली भी खाली लगती है। जरा सिखाओ अपने नए पीलीभीती खरगोश को, इस देश में तो जयशंकर प्रसाद जी के चंद्रगुप्त की चाणक्य-छाया से तृप्त, यवन सेनापति सेल्यूकस की विदेशी पुत्री कार्नेलिया भी यही गाती है- ‘अरूण यह मधुमय देश हमारा’।

तो आदरणीय- फ़ादरणीय मजबूत नेता जी, अपने उस नए फ़ार्वर्ड शार्ट-लेग को समझाओ कि राम और रोम को बराबर समझे, और माई और ताई के आंगन वाले झगड़े को दालान का अखाड़ा ना बनाए और वही सब आप भी समझो। तभी अपने नए रंगरूटों को इस बार नगपुर वाले मार्मिक भारतीय गीतों के साथ- साथ यह भी याद करा सकोगे कि- 

‘वरूण,  यह मधुमय देश हमारा
जहां पहुंच अन्जान क्षितिज को मिलता एक किनारा” 

जय जनता जनार्दन!